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Monday, 11 November 2019

सोहराय पर्व

सोहराय पर्व- यह संथालो का सबसे बडा पर्व है। यह पूस महीने मे नये फसल के साथ मनाया जाता है,यह पर्व किसी खास तारीक या तिथि को नहीं मनाया जाता है। इस पर्व को मनाने के लिए मंझी हाडाम द्वारा बैठक लाया जाता है,तथा गाँव में सभी व्यक्ति के कुशल-मंगल होने पर ही पर्व मनाने का निर्नय लिया जाता है।
       गाँव में सभी के कुशल-मंगल होने पर सोहराय पर्व मनाने के लिए दिन तय किया जाता हैं।तब मंझी हाडाम,जोग मंझी को घर-घर जाकर सूचित करने का आदेश देते हैं,तब जोग मंझी घर-घऱ जाकर सूचित करते हैं कि इस दिन को सोहराय पर्व का ऊम(स्नान) है,सभी अपने-अपने रिश्तेदारों को सोहराय पर्व का न्योता दें -दें और पर्व के नाम पर मदिरा तैयार करें।
         यह पर्व मुख्य रूप से तीन दिन का होता है जिसमे  -
  1. पहला दिन को ऊम हीलोक्(स्नान या साफ-सफाई का दिन)
  2. दूसरा दिन को दाकाय हीलोक(खाने पीने का दिन)और
  3. तीसरा या अंतिम दिन को अडाक्को हीलोक
      तय किये गए दिन सभी मेहमान जमा होते है,इस पर्व में खासकर होपोन एरा(शादी-शुदा बेटियों)और मिसरा(शादी-शुदा
बहनो) को बुलाया जाता है,इसलिए यह खासकर इन्हीं(बेटी और बहनों) लोगों का पर्व है।इस पर्व में इनका खूब सेवा-सत्कार
किया जाता है।
        ऊम हीलोक् के पहले शाम गोडेत(नायके का सहायक) नायके को तीन मुर्गे सौंपते हैं,जिसमे दो पोण्ड सिम(साफेद- मर्गे) और एक हेडाक् सिम(एक प्रकार का मुर्गे का रंग) होता है। नायके तीनो मुर्गे को बाँधने के पश्चात कुछ नियम-धर्म का
पालन करते हैं। जैसे कि ऊस रात नायके(पुजारी) धरती पर चटाई बिछाकर सोते हैं।
        ऊम के दिन गोडेत घर-घर जाकर मुर्गा, चावल, नमक, हल्दी इतयादि एकत्रित करते हैं, और नायके एरा(पूजारिन)
स्नान करने के पश्चात अरवा चावल पीसती है। उसके पश्चात नायके,गोडेत और कुछ ग्रामिण एकत्रित मुर्गों को लेकर नदी के किनारे पूजा करने के लिए प्रस्थान करते हैं।
         स्नान करने के पश्चात नायके उत्तर दक्षिण दिशा में गोबर से लिपकर लम्बा-लम्बा एक -एक खोंण्ड(खण्ड) बनाते है,
और प्रत्येक खण्ड मे भिन्न-भिन्न स्थानों पर थोडा-थोडा चावल रखते जाते हैं। चावल रखने के बाद उसके किनारे-
किनारे तीन-तीन सिंदूर का टिका लगाते हैं ।उसके बाद ऊम के पहले दिन पकडे गए तीन मुर्गों में से हेडाक सिम पर जल छिडक कर,सर्वप्रथम उसके सिर पर, उसके बाद उसके डैने और पैर पर सिंदूर करते हैं।तब नायके एक अण्डा लेकर उसपर सिंदूर करते हैं और चावल पर स्थापित करते हैं तथा हेडाक सिम(मुर्गा) को चावल खिलाते हुए  इस बाखेंढ(मंत्र ) का उच्चारण करते हैं-      
जोहार तोबेखान -जाहेर एरा,ठकूर जी,सोहराय ञुतुम ते एमाम कान,चालाम कान........................................................डी रे,डण्डी रे,लाच् हासो बोहोक्
हासो,अलोपे बोलो ओचोया।पेडाको, गुतीको ,नय पारोम,गाडा पारोम नेवतावाकोत
-को ले,देवको,भगिन को,नति को,नतकार को,एनेच जोंङ,सुलंङ जोंङाको,जिनथी
अलो,पथरी अलो,नाश अलो,विनाश अलो,नेयाव अलो झोगडा अलो,रसका ते
एनेच जोंङ सुलंङ जोंङमाको,गोंसाइ ठकुर तीञ।
 
उसके बाद उस मुर्गे की बलि दी जाती है,तथा सभी खण्डों में अन्य मुर्गों की बलि दी जाती है।बलि से प्राप्त मुर्गों का सूड़े
(खिचडी) बनाया जाता है तथा गाँव के सभी पुरूष उसका भोग करते है और गोट हण्डी(मदिरा) पिया जाता है।
उसके बाद मंझी गाँव के लोगों से सब खैरियत हैं,का जायजा लेते हैं और उसके बाद यह उपदेश देते हैं।
      ठकूर के कृपा से सब-कुछ ठीक-ठाक होने के कारण ही हम आज सोहराय पर्व मना पा रहे हैं तथा मरांग दई(सोहराय-पर्व) हमारे पास आई है।सभी पाँच दिन पाँच रात नाच गान के जरिए खुशी मनाएँ,लडाई-झगडा,लोभ-लालच
न,इर्ष्या-द्वेश न करें,इतयादि।जो संथाली में उस प्रकार है-
  • मोंडें सिंञ मोंडें ञिंदा एनेच जोंङ पे,सुलंङ जोंङ पे,बोयहा-बोकोयहा।
  • नेयाव अलो,झोगडा अलो,लोब अलो,लालोच अलो,
  • लालोच मेनाक् खान ञेल ठीक काते झंटी झींगा को हों गोद पे।
  • जात वानाक् दो अलो।
  • डोडोवाक् हों अलो।
  • जलियाक् को गोद पे।
  • आर ओका बहा को चारेच तेको बातावाक्,सुतम तेको तोल अकात् ओना दो अलोपे सित् कय ताबोना।
अदो मोंडें होड को रोड रूवाडा- गेल बार पाहा ते लुतूर बोन तेपेदा आर जहान लटू से कटीच कथा,बाबोन मेंत लुतुराआ।]

      उपदेश के समाप्त होने पर चरवाहो को गाय लाने के लिए कहा जाता है।तब नायके चरवाहों से डंडा मँगते हैं और सभी डंडा को पूजा खण्ड में रखकर तेल सिंदूर देते है।उसके बाद चरवाहों को पूजा खण्ड पर गाय खदेडने का आदेश दिया
जाता है,और जो गाय पूजा खण्ड में स्थापित अण्डा को सूंघती है, या पैर लगाती है,उस गाय का पैर धोया जाता है,तथा उसके सिंगों पर तेल लगाकर सिंदूर दिया जाता है।

गुरु गोमके पंडित रघुनाथ मुर्मू (5 मई 1905 - 1 फरवरी 1982)

पंडित रघुनाथ मुर्मू ओल चिकी लिपि के आविष्कारक है। 5 मई 1905 को उड़ीसा के मयूरभंज जिले में पूर्णिमा के दिन (दहार्दिह) डांडबुस नामक एक गांव में उनका जन्म हुआ था। तकनीकी पेशे में एक संक्षिप्त कार्यकाल के बाद, उन्होंने बोडोतोलिया हाई स्कूल में अध्यापन का काम संभाला। इस दौरान, उनकी रुचि संथाली साहित्य में हुई। संथाली एक विशेष भाषा है, और एक साहित्य है जिसकी शुरुआत  15 वीं शताब्दी  प्रारंभ में हुई। उन्होंने महसूस किया कि उनके समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और परंपरा के साथ ही उनकी भाषा को बनाए रखने और बढ़ावा देने के लिए एक अलग लिपि की जरूरत है, और इसलिए उन्होंने संथाली  लिखने के लिए ओल चिकी लिपि की खोज के काम को उठाया। 1925 में ओल चिकी लिपि का आविष्कार किया गया था। उपन्यास बिदु चंदन में उन्होंने स्पष्ट रूप से वर्णित किया है कि कैसे देवता बिडू और देवता चंदन जो पृथ्वी पर मानव के रूप में दिखाई देते हैं, ने स्वाभाविक रूप से ओल चिकी लिपि का आविष्कार किया था ताकि उनके साथ संवाद स्थापित हो सके एक दूसरे लिखित संताली का उपयोग करते हुए उन्होंने 150 से अधिक पुस्तकें लिखीं, जैसे कि व्याकरण, उपन्यास, नाटक, कविता और सांताली में विषयों की एक विस्तृत श्रेणी को कवर किया, जिसमें सांलक समुदाय को सांस्कृतिक रूप से उन्नयन के लिए अपने व्यापक कार्यक्रम के एक हिस्से के रूप में ओल चिकी का उपयोग किया गया। "दरेज धन", "सिद्धु-कान्हू", "बिदु चंदन" और "खरगोश बीर" उनके कामों में से सबसे प्रशंसित हैं। पश्चिम बंगाल और उड़ीसा सरकार के अलावा, उड़ीसा साहित्य अकादमी सहित कई अन्य संगठनों / संगठनों ने उन्हें विभिन्न तरीकों से सम्मानित किया है और रांची विश्वविद्यालय द्वारा माननीय डी लिट से उन्हें सम्मानित किया है। महान विचारक, दार्शनिक, लेखक, और नाटककार ने 1 फरवरी 1982 को अपनी अंतिम सांस ली।

जब रघुनाथ मुर्मू ने ‘ऑलचिकी’ (ओल लिपि) का अविष्कार किया और उसी में अपने नाटकों की रचना की, तब से आज तक वे एक बड़े सांस्कृतिक नेता और संताली के सामाजिक-सांस्कृतिक एकता के प्रतीक रहे हैं। उन्होंने 1977 में झाड़ग्राम के बेताकुन्दरीडाही ग्राम में एक संताली विश्वविद्यालय का शिलान्यास किया था। मयूरभंज आदिवासी महासभा ने उन्हें गुरु गोमके (महान शिक्षक) की उपाधि प्रदान की। रांची के धुमकुरिया ने आदिवासी साहित्य में उनके योगदान के लिए उन्हें डी. लिट्. प्रदान किया, जुलियस तिग्गा ने उन्हें महान अविष्कारक एवं नाटककार कहा और जयपाल सिंह मुण्डा ने उन्हें नृवैज्ञानिक और पंडित कहा। चारूलाल मुखर्जी ने उन्हें संतालियों के धर्मिक नेता कह कर संबोधित किया तथा प्रो. मार्टिन उराँव ने अपनी पुस्तक ‘दी संताल - ए ट्राईब इन सर्च ऑफ दी ग्रेट ट्रेडिशन’ में ऑलचिकी की प्रशंसा करते हुए उन्हें संतालियों का महान गुरु कह कर संबोधित किया। गुरु गोमके ने भाषा के माध्यम से सांस्कृतिक एकता के लिए लिपि के द्वारा जो आंदोलन चलाया वह ऐतिहासिक है। उन्होंने कहा - "अगर आप अपनी भाषा - संस्कृती , लिपि और धर्म भूल जायेंगे तो आपका अस्तित्व भी ख़त्म हो जाएगा ! "

बाबा तिलका माँझी

                           तिलका माँझी
तिलका माँझी उर्फ जबरा पहाड़िया (संताली:ᱵᱟᱵᱟ ᱛᱤᱞᱠᱟᱹ ᱢᱟᱡᱷᱤ) (जन्म 11 फ़रवरी 1750 13 जनवरी 1785) भारत के आदिविद्रोही हैं। दुनिया का पहला आदिविद्रोही रोम के पुरखा आदिवासी लड़ाका स्पार्टाकस को माना जाता है। भारत के औपनिवेशिक युद्धों के इतिहास में जबकि पहला आदिविद्रोही होने का श्रेय पहाड़िया आदिम आदिवासी समुदाय के लड़ाकों को माना जाता हैं जिन्होंने राजमहल, झारखंड की पहाड़ियों पर ब्रिटिश हुकूमत से लोहा लिया। इन पहाड़िया लड़ाकों में सबसे लोकप्रिय आदिविद्रोही जबरा या जौराह पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी हैं।



परिचय
जबरा पहाड़िया (तिलका मांझी) भारत में ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देने वाले पहाड़िया समुदाय के वीर आदिवासी थे। सिंगारसी पहाड़, पाकुड़ के जबरा पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी के बारे में कहा जाता है कि उनका जन्म 11 फ़रवरी 1750 ई. में हुआ था। 1771 से 1784 तक उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध लंबी और कभी न समर्पण करने वाली लड़ाई लड़ी और स्थानीय महाजनों-सामंतों व अंग्रेजी शासक की नींद उड़ाए रखा। पहाड़िया लड़ाकों में सरदार रमना अहाड़ी और अमड़ापाड़ा प्रखंड (पाकुड़, संताल परगना) के आमगाछी पहाड़ निवासी करिया पुजहर और सिंगारसी पहाड़ निवासी जबरा पहाड़िया भारत के आदिविद्रोही हैं। दुनिया का पहला आदिविद्रोही रोम के पुरखा आदिवासी लड़ाका स्पार्टाकस को माना जाता है। भारत के औपनिवेशिक युद्धों के इतिहास में जबकि पहला आदिविद्रोही होने का श्रेय पहाड़िया आदिम आदिवासी समुदाय के लड़ाकों को जाता हैं जिन्होंने राजमहल, झारखंड की पहाड़ियों पर ब्रितानी हुकूमत से लोहा लिया। इन पहाड़िया लड़ाकों में सबसे लोकप्रिय आदिविद्रोही जबरा या जौराह पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी हैं। इन्होंने 1778 ई. में पहाड़िया सरदारों से मिलकर रामगढ़ कैंप पर कब्जा करने वाले अंग्रेजों को खदेड़ कर कैंप को मुक्त कराया। 1784 में जबरा ने क्लीवलैंड को मार डाला। बाद में आयरकुट के नेतृत्व में जबरा की गुरिल्ला सेना पर जबरदस्त हमला हुआ जिसमें कई लड़ाके मारे गए और जबरा को गिरफ्तार कर लिया गया। कहते हैं उन्हें चार घोड़ों में बांधकर घसीटते हुए भागलपुर लाया गया। पर मीलों घसीटे जाने के बावजूद वह पहाड़िया लड़ाका जीवित था। खून में डूबी उसकी देह तब भी गुस्सैल थी और उसकी लाल-लाल आंखें ब्रितानी राज को डरा रही थी। भय से कांपते हुए अंग्रेजों ने तब भागलपुर के चौराहे पर स्थित एक विशाल वटवृक्ष पर सरेआम लटका कर उनकी जान ले ली। हजारों की भीड़ के सामने जबरा पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी हंसते-हंसते फांसी पर झूल गए। तारीख थी संभवतः 13 जनवरी 1785। बाद में आजादी के हजारों लड़ाकों ने जबरा पहाड़िया का अनुसरण किया और फांसी पर चढ़ते हुए जो गीत गाए - हांसी-हांसी चढ़बो फांसी ...! - वह आज भी हमें इस आदिविद्रोही की याद दिलाते हैं।

पहाड़िया समुदाय का यह गुरिल्ला लड़ाका एक ऐसी किंवदंती है जिसके बारे में ऐतिहासिक दस्तावेज सिर्फ नाम भर का उल्लेख करते हैं, पूरा विवरण नहीं देते। लेकिन पहाड़िया समुदाय के पुरखा गीतों और कहानियों में इसकी छापामार जीवनी और कहानियां सदियों बाद भी उसके आदिविद्रोही होने का अकाट्य दावा पेश करती हैं।



तिलका माँझी उर्फ जबरा पहाड़िया विवाद
तिलका मांझी संताल थे या पहाड़िया इसे लेकर विवाद है।आम तौर पर तिलका मांझी को मूर्म गोत्र का बताते हुए अनेक लेखकों ने उन्हें संताल आदिवासी बताया है। परंतु तिलका के संताल होने का कोई ऐतिहासिक दस्तावेज और लिखित प्रमाण मौजूद नहीं है। वहीं, ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार संताल आदिवासी समुदाय के लोग 1770 के अकाल के कारण 1790 के बाद संताल परगना की तरफ आए और बसे।

The Annals of Rural Bengal, Volume 1, 1868 By Sir William Wilson Hunter (page no 219 to 227) में साफ लिखा है कि संताल लोग बीरभूम से आज के सिंहभूम की तरफ निवास करते थे। 1790 के अकाल के समय उनका माइग्रेशन आज के संताल परगना तक हुआ। हंटर ने लिखा है, ‘1792 से संतालों नया इतिहास शुरू होता है’ (पृ. 220)। 1838 तक संताल परगना में संतालों के 40 गांवों के बसने की सूचना हंटर देते हैं जिनमें उनकी कुल आबादी 3000 थी (पृ. 223)। हंटर यह भी बताता है कि 1847 तक मि. वार्ड ने 150 गांवों में करीब एक लाख संतालों को बसाया (पृ. 224)।

1910 में प्रकाशित ‘बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर: संताल परगना’, वोल्यूम 13 में एल.एस.एस. ओ मेली ने लिखा है कि जब मि. वार्ड 1827 में दामिने कोह की सीमा का निर्धारण कर रहा था तो उसे संतालों के 3 गांव पतसुंडा में और 27 गांव बरकोप में मिले थे। वार्ड के अनुसार, ‘ये लोग खुद को सांतार कहते हैं जो सिंहभूम और उधर के इलाके के रहने वाले हैं।’ (पृ. 97) दामिनेकोह में संतालों के बसने का प्रामाणिक विवरण बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर: संताल परगना के पृष्ठ 97 से 99 पर उपलब्ध है।

इसके अतिरिक्त आर. कार्सटेयर्स जो 1885 से 1898 तक संताल परगना का डिप्टी कमिश्नर रहा था, उसने अपने उपन्यास ‘हाड़मा का गांव’ (Harmawak Ato) की शुरुआत ही पहाड़िया लोगों के इलाके में संतालों के बसने के तथ्य से की है।

पूर्वजों के नाम पर बच्चे का नाम रखने की परंपरा अन्य आदिवासी समुदायों की तरह संतालों में भी है. लेकिन संतालों में पूर्व में और आज भी किसी व्यक्ति का नाम ‘तिलका’ नहीं मिलता है। लेकिन पहाड़िया समुदाय के लोगों में आज भी ‘जबरा’ नाम रखने का प्रचलन है।

अंग्रेजों ने जबरा पहाड़िया को खूंखार डाकू और गुस्सैल (तिलका) मांझी (समुदाय प्रमुख) कहा। संतालों में भी मांझी होते हैं और बड़ी आबादी व 1855 के हूल के कारण वे ज्यादा जाने गए, इसलिए तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाड़िया के संताल आदिवासी होने का भ्रम फैला। दरअसल, जबरा प्रत्यक्षतः भागलपुर के तत्कालीन जिला कलेक्टर क्लीवलैंड द्वारा गठित ‘पहाड़िया हिल रेंजर्स’ के सेना नायक के रूप में अंग्रेजी शासन के वफादार बनने का दिखावा करते थे और नाम बदल कर ‘तिलका’ मांझी के रूप में अपने सैंकड़ों लड़ाकों के साथ गुरिल्ला तरीके से अंग्रेज शासक, सामंत और महाजनों के साथ युद्धरत रहते थे। वैसे, पहाड़िया भाषा में ‘तिलका’ का अर्थ है गुस्सैल और लाल-लाल आंखों वाला व्यक्ति। चूंकि वह ग्राम प्रधान था और पहाड़िया समुदाय में ग्राम प्रधान को मांझी कहकर पुकारने की प्रथा है। इसलिए हिल रेंजर्स का सरदार जौराह उर्फ जबरा मांझी तिलका मांझी के नाम से विख्यात हो गए। ब्रिटिशकालीन दस्तावेजों में भी जबरा पहाड़िया मौजूद है पर तिलका का कहीं नामोल्लेख नहीं है।

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